‘Dalit leader ignored’: BJP attacks Congress by sidelining Kharge, advice to teach a lesson to Rahul Gandhi : भारतीय राजनीति में दलित नेतृत्व और प्रतिनिधित्व एक संवेदनशील और अहम मुद्दा रहा है। हाल ही में कांग्रेस पार्टी में हुई एक अहम बैठक के दौरान मल्लिकार्जुन खरगे को दरकिनार करने की घटना ने एक नया राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस मुद्दे को जोरशोर से उठाते हुए कांग्रेस पर दलित विरोधी मानसिकता का आरोप लगाया है। साथ ही भाजपा नेताओं ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को “सम्मान करना सीखो” जैसी तीखी टिप्पणी के जरिए निशाने पर लिया।
यह मुद्दा केवल एक व्यक्ति विशेष की उपेक्षा नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रतिबद्धताओं और उनके व्यवहार को लेकर जनता के बीच नई बहस का केंद्र बन गया है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि यह विवाद क्या है, भाजपा और कांग्रेस की क्या प्रतिक्रियाएं हैं, और इससे देश की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है।
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मल्लिकार्जुन खरगे को क्यों किया गया किनारे?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे वर्तमान में पार्टी के शीर्ष पद पर हैं और वह एक अनुभवी दलित नेता माने जाते हैं। हाल ही में एक बैठक के दौरान, जिसमें कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता शामिल थे, राहुल गांधी को प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया गया, जबकि खरगे को मंच पर अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया।
भाजपा ने इस घटना को सांकेतिक अपमान करार देते हुए कहा कि कांग्रेस सिर्फ दिखावे के लिए दलित नेतृत्व को आगे रखती है, लेकिन असली सत्ता का केंद्र नेहरू-गांधी परिवार ही है।
भाजपा ने राहुल गांधी पर कैसे साधा निशाना?
भाजपा प्रवक्ता ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा:
“कांग्रेस को दलितों से प्रेम नहीं, बल्कि सत्ता के लिए सहूलियत चाहिए। मल्लिकार्जुन खरगे को कांग्रेस अध्यक्ष जरूर बनाया गया, लेकिन निर्णय लेने की शक्ति अब भी राहुल गांधी और उनके परिवार के पास है।”
उन्होंने राहुल गांधी पर सीधा हमला करते हुए कहा:
“आप खुद को युवाओं का नेता बताते हैं, तो पहले दूसरों का सम्मान करना सीखिए।”
‘दलित विरोधी कांग्रेस’—राजनीतिक विमर्श में नया आरोप
भाजपा की यह रणनीति साफ़ तौर पर एक चुनावी एजेंडा तैयार करने की ओर इशारा करती है। देश के विभिन्न हिस्सों में दलित मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। ऐसे में भाजपा इस घटना को एक उदाहरण बनाकर यह बताना चाहती है कि कांग्रेस दलितों की हितैषी नहीं, बल्कि अवसरवादी पार्टी है।
वहीं कांग्रेस ने इन आरोपों को खारिज करते हुए भाजपा पर दलितों को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया—’राजनीतिक स्टंट’
कांग्रेस प्रवक्ता ने भाजपा के आरोपों को बेबुनियाद और राजनीतिक स्टंट बताया। उन्होंने कहा:
“मल्लिकार्जुन खरगे पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष हैं और सभी निर्णय उनकी सहमति से लिए जाते हैं। भाजपा केवल भ्रम फैलाने और अपने असली मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसी बयानबाज़ी कर रही है।”
उन्होंने यह भी कहा कि राहुल गांधी और खरगे के बीच परस्पर सम्मान और सहयोग का रिश्ता है, जिसे तोड़ने की कोशिश की जा रही है।
दलित राजनीति का बदलता स्वरूप
यह घटना केवल एक बैठक का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह दलित राजनीति और दलित नेतृत्व की स्वीकृति को लेकर एक व्यापक सवाल उठाती है। क्या राजनीतिक दल केवल सामाजिक समीकरणों को साधने के लिए दलित नेताओं को आगे बढ़ा रहे हैं, या फिर वे सच में सत्ता के केंद्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं?
इस पूरे प्रकरण में भाजपा यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि वह दलित हितों की सच्ची प्रतिनिधि बन रही है, जबकि कांग्रेस केवल मुखौटा राजनीति कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषण: क्या है असली मुद्दा?
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा ने इस मुद्दे को हवा देकर कांग्रेस को नैतिक रूप से कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। मल्लिकार्जुन खरगे जैसे वरिष्ठ और अनुभवशील नेता को जिस तरह से नजरअंदाज किया गया, उसने कांग्रेस की आंतरिक सत्ता संरचना पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
इसके साथ ही भाजपा यह भी दर्शाना चाहती है कि वह दलित सम्मान और प्रतिनिधित्व को लेकर अधिक गंभीर और प्रतिबद्ध है।
दलित मतदाताओं पर असर
भारत की राजनीति में दलित वोट बैंक अत्यंत महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में यह वर्ग सरकार बनाने और गिराने की क्षमता रखता है। ऐसे में यह विवाद अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों और आगामी लोकसभा चुनाव 2026 को भी प्रभावित कर सकता है।
निष्कर्ष: क्या दिखावे से आगे बढ़ेगी राजनीति?
मल्लिकार्जुन खरगे की उपेक्षा के बहाने छिड़ा यह विवाद केवल प्रोटोकॉल या सम्मान का मामला नहीं, बल्कि यह भारतीय राजनीति में सामाजिक समरसता और सत्ता के वितरण पर गहरे प्रश्न खड़ा करता है। यह स्पष्ट है कि आज भी सत्ता के शीर्ष तक दलित नेतृत्व की पहुंच केवल सीमित दायरे तक है।
अब यह जनता को तय करना है कि वे सिर्फ प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से संतुष्ट रहें, या फिर वास्तविक भागीदारी और निर्णय लेने की शक्ति भी अपने नेताओं को देना चाहेंगे।